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चीन- भारत : हर नागरिक को अपना कर्तव्य निभाना होगा

चीनी वस्तुओं के बहिष्कार से आगे की लड़ाई


कोविड-19 विषाणु से पैदा वैश्विक संकट में अपनी संदिग्ध भूमिका से दुनिया भर में कुख्यात हो चुके चीन ने एकबार फिर ऐसी हरकत की है, जिससे उसपर भरोसे का संकट और गहरा गया है। पूर्वी लद्दाख की गलवन घाटी में चीन और भारतीय सैनिकों के बीच खूनी झड़प के बाद दोनों देशों के रिश्तों में एकबार फिर अविश्वास का वातावरण पैदा हो गया है। चीन के सैनिकों के साथ हुए रक्तरंजित संघर्ष में 20 भारतीय सैनिकों की शहादत का आक्रोश भारतीय जनमानस में साफ देखा जा सकता है। सोशल मीडिया से लेकर तमाम जगहों पर लोग गुस्सा व्यक्त कर रहे हैं। अपने जवानों के शौर्य को नमन करते हुए चीनी वस्तुओं के बहिष्कार से लेकर चीन को सैन्य मोर्चे पर सबक सिखाने की मांग उठ रही है। एक राष्ट्र के नागरिक के रूप में ऐसी प्रखर अभिव्यक्तियों का होना, स्वाभाविकता के साथ हमारी राष्ट्रीयता के जीवंत होने का प्रमाण भी है। वैसे मौजूदा तल्खी के बाद भी दोनों देशों के बीच सैन्य युद्ध जैसी स्थिति बनने की आशंका कम है। लेकिन आर्थिक मोर्चे पर यह तनाव जरूर दिखेगा और लंबे समय तक इसका असर भी रहेगा।देश में चीन निर्मित वस्तुओं के बहिष्कार का जो आह्वान किया जा रहा है, उसे व्यापक रूप से समझने और आत्मसात करने की जरूरत है। आज हो सकता है कि यह बात कड़वी लगे लेकिन चीन उत्पादित वस्तुओं को जिस कदर हमने अपने जीवन का हिस्सा बनाया, उसके पीछे हमारी सरकारों की उदासीनता तथा हमारी खुद की वह मानसिकता दोषी है, जिसमें हम अपने स्वत्व के बोध को ही नकारने लगते हैं। लेकिन स्वदेशी के उन पैरोकारों की समृद्ध विरासत को भी नमन है, जिसने हिन्दी-चीनी, भाई-भाई से लेकर टिकटॉक तक हमें चीन की कारगुजारियों से लगातार जागृत करते रहे। आज जिनकी बदौलत देश में चीन के विरुद्ध आर्थिक नवजागरण की चर्चा आंदोलन का रूप ले रही है। यहां इस बात को भी सुनिश्चित करना होगा कि चीन के विरुद्ध जनचेतना का यह ज्वार सिर्फ सोशल मीडिया या चीनी वस्तुओं के बहिष्कार के दिखावे रूपी तात्कालिक आक्रोश तक सीमित न रह जाए, बल्कि इसे समाज को आचरण में उतारना होगा।कम से कम दोनों देशों के बीच कारोबारी रिश्तों से भारत को लगातार हो रहे व्यापार घाटे के समानांतर ही चीन द्वारा बढ़ रहा सांस्कृतिक आक्रमण तो यही कह रहा है। साल 2019 में भारत ने चीन से लगभग 75 अरब डॉलर की वस्तुओं का आयात किया। जबकि साल भर में चीन को सिर्फ 18 अरब डॉलर की वस्तुओं का निर्यात हुआ है। चीन निर्मित वस्तुओं का हमारे जीवन में इस कदर उपयोग बढ़ा है कि सुई से लेकर मोबाइल, पूजा सामग्री से लेकर परमाणु रिएक्टर तक हमने चीन निर्मित वस्तुओं पर निर्भरता बढ़ाई है। परिणामस्वरूप आज हमें लगभग 57 अरब डॉलर का व्यापार घाटा चीन के साथ झेलना पड़ रहा है। भारत के स्मार्ट फोन बाजार में 65 फीसदी चीन का कब्जा है। इसी तरह परमाणु रिएक्टरों के आयात पर 13.4 अरब डॉलर खर्च कर चुके हैं। आज देश नवीनीकृत ऊर्जा संसाधनों के विकास में जिस तेज गति से बढ़ रहा है, उसमें सौर ऊर्जा संयंत्रों की स्थापना में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है, लेकिन 75 प्रतिशत सोलर पैनल के लिए हम चीन पर आधारित हैं। इसी तरह देश में 44 प्रतिशत प्लास्टिक चीन से आता है। यहां तक कि वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय निर्यात एंव आयात डाटा बैंक के आंकड़ों के मुताबिक इलेक्ट्रिक उपकरणों के लिए 2018-2019 में हमने 20.63 अरब डॉलर खर्च किए हैं। भारत रासायनिक उत्पादों के लिए भी चीन पर बहुत अधिक निर्भर है।यह तो हुई चीन की भारत पर स्थापित किए जाने वाले आर्थिक प्रभुत्व की बात, अपने देश में लोकतांत्रिक मर्दायाओं को तार-तार करने वाला चीन सांस्कृतिक रूप से भी भारत में आक्रमण कर रहा है, जो कि देश के लिए चुनौती का विषय है। विशेष रूप से टिकटॉक व हैलो जैसे एप के जरिए राष्ट्र विरोधी सामग्री परोसने से जुड़े जो तथ्य स्वदेशी जागरण मंच तथा अन्य आर्थिक संगठन सामने लेकर आए हैं, उसके समाधान की आवश्यकता है। चीन की चालबाजी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अब मेड इन चाइना लिखित वस्तुओं की जगह भ्रम पैदा करने के लिए पीआरसी (पीपल रिपब्लिक ऑफ चाइना) शब्द का उपयोग कर रहा है। इसी तरह आर्थिक साम्राज्यवाद का स्वप्न देख रहा चीन भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की जगह स्टार्टअप में पैसा लगा रहा है। एक आंकड़े के मुताबिक चीन ने भारत के 16 बड़े स्टार्टअप में निवेश किया है। यह एक तरह से तकनीक व खुदरा बाजार पर भी कब्जा करने का प्रयास है।जाहिर ऐसी परिस्थितियों में चीन पर निर्भरता कम करने के लिए स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग बढ़ाने से एक ओर जहां आत्मनिर्भर भारत की संकल्पना तो पूरी होगी ही, समाज में चीन के विरुद्ध विमर्श खड़ाकर हम सरकारों पर दबाव बनाने में कामयाब होंगे। कई बार ऐसा देखा जाता है कि अपनी सीमाओं की दुहाई देकर सरकारें कड़े निर्णय लेने से बचती हैं। इसका ताजा उदाहरण गलवन घाटी में भारतीय सैनिकों की शहादत के बाद जन दबाव की वजह से चीन की कंपनी को दिल्ली-मेरठ रीजनल रैपिड ट्रांजिट सिस्टम प्रोजेक्ट से अलग करने के निर्णय में देखा जा सकता है। इसी तरह दूरसंचार के क्षेत्र में इस्तेमाल होने वाली चीनी तकनीक व उपकरणों के अनुप्रयोग पर भी प्रतिबंध लगाया गया है। इसमें दो मत नहीं कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार की अपनी सीमाएं होती हैं लेकिन किसी भी देश से आने वाली वस्तुओं को सुरक्षा, स्वास्थ्य व रोजगार समेत कुछ मानकों से गुजरना होता है, चीन निर्मित वस्तुओं विशेष रूप से प्लास्टिक से तैयार उत्पादों की सुरक्षा को लेकर अक्सर चिंता जाहिर की जाती रही है। ऐसे में सरकार चाहे तो इन मानकों के आधार पर चीन से होने वाले आयात को कम कर सकती है। समाज और सरकार का यह संकल्प कुछ इसी तरह होना चाहिए जैसे अमेरिका द्वारा 1945 में जापान के हिरोशिमा पर परमाणु बम गिराए जाने के बाद जापान के लोगों व वहां की सरकार द्वारा प्रगट किया गया। आज भी अमेरिका को जापान से कारोबार बढ़ाने के लिए तरसना पड़ रहा है। चीन ने भारत के विश्वास पर पहली बार आघात किया है, ऐसा नहीं है। इससे पूर्व पंचशील के सिद्धांतों की हत्या करते हुए वह 1962 में युद्ध कर चुका है, 1967 में नाथुला में चीन की कायरतापूर्ण हरकत का भारतीय सैनिकों ने करारा जवाब दिया था। 1975 में भारतीय सेना के गश्ती दल पर चीन की सेनाएं आक्रमण कर चुकी हैं। कुछ इसी तरह वह 2017 के डोकलाम विवाद में भी अपना असली चेहरा दिखा चुका है। जाहिर है, सैन्य मोर्चे पर अपनी ताकत बढ़ाने के साथ-साथ स्वदेशी वस्तुओं के उत्पादन को बढ़ावा देकर हम चीन के साम्राज्यवादी मंसूबों को करारा जवाब दे सकते हैं। इस हेतु देश में निर्मित वस्तुओं को हमें गुणवत्ता के वैश्विक मानकों से युक्त करना होगा। इससे जनता के बीच स्वदेशी वस्तुओं की स्वीकार्यता बढ़ेगी। यह कार्य प्रत्येक नागरिक चाहे वह जिस भूमिका में हो, उसके राष्ट्र के प्रति कर्तव्य बोध से ही संभव होगा।


अरविन्द मिश्रा

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)


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