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जब खेती सूख जाएगी तब बरसात के क्या मायने?

डॉ. वेदप्रताप वैदिक



मुझे यह जानकर बड़ी खुशी हुई कि भारत सरकार अपने सर्वोच्च न्यायालय से कह रही है कि देश के गैर-सरकारी कल-कारखानों, दुकानों और घरों में काम करनेवाले लोगों को वह उनकी पूरी तनखा दिलवाए। पिछले दो-ढाई महीने से उन्हें एक कौड़ी भी नहीं मिली है। वे भूखे मर रहे हैं। उनके मकान-मालिक उन्हें तंग कर रहे हैं। उनके पास अपनी दवा-दारु के लिए भी कोई साधन नहीं है। सरकार का तर्क भी काफी दमदार प्रतीत होता है, क्योंकि वह भी अपने करोड़ों कर्मचारियों को तालाबंदी के दौर की पूरी तनखा दे रही है। सर्वोच्च अफसर से लेकर किसी चपरासी की तनखा और भत्तों में कोई कटौती नहीं हुई है। सांसदों ने जरूर अपने वेतन में कटौती करवाई है। ऐसे में यदि सरकार देश के कारखानेदारों, व्यापारियों और खेत-मालिकों से अपने कर्मचारियों को पूरी तनखा देने का आग्रह करे तो वह समझ में आता है।लेकिन सरकार इस सच्चाई को क्यों नहीं देख पा रही है कि कारखानों और दुकानों की आमदनी सिर्फ तालाबंदी के दिनों में ही शून्य नहीं हुई है, वह अगले तीन, चार-चार माह तक भी लंगड़ाती रहेगी। उन मालिकों के पास कच्चा माल खरीदने और अपने व्यवसाय को चलाने के लिए ही पैसे नहीं हैं तो वे अपने कर्मचारियों को पैसे कहां से देंगे? कितनी ही फैक्टरियां और दुकानें बंद हो चुकी हैं। जो चालू होना चाहती हैं, वे अपने मजदूरों को उनके गांव से वापस लाने का भी जुगाड़ बिठा रही हैं। ऐसे में सर्वश्रेष्ठ हल तो यह है, जैसा कि ब्रिटेन में हुआ है। गैर-सरकारी संगठनों के कर्मचारियों की 80 प्रतिशत तनखा सरकार दे रही है। हमारी सरकार 80 प्रतिशत न सही, 50 प्रतिशत ही दे दे तो गाड़ी चल सकेगी। यह काम साल भर नहीं, सिर्फ 6 माह के लिए कर दे तो हमारी अर्थव्यवस्था पटरी पर आ जाएगी। बाजारों में मांग बढ़ेगी तो उत्पादन भी बढ़ेगा। सरकार को अब करोड़ों मजदूरों की वापसी के इंतजाम के लिए भी तैयार रहना होगा। हमारी केंद्र और प्रांतों की सरकारों को केरल सरकार को अपना गुर धारण करना चाहिए। वह मजदूरों के लिए क्या-क्या नहीं कर रही है। केंद्र सरकार अब अदालत से कह रही है कि मालिक और मजदूर आपस में बात करके अपना लेन-देन तय करें। मैं सरकार से पूछता हूं कि वह अपने खजाने को क्यों नहीं खोलती? जब खेती सूख जाएगी, तब बरसात के क्या मायने रह जाएंगे?

(लेखक सुप्रसिद्ध पत्रकार और स्तंभकार हैं।)


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