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जीवन निर्माण में गुरु की भूमिका अहम, डॉ वरुण मुनि


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न विना यानपात्रेण , तरितुं शक्यतेSर्णवः ।।

नर्ते गुरूपदेशाच्च , सुतरोSयं भवार्णवः ।।

आदि पुराण में कहे गए इस श्लोक का अर्थ यह है कि जैसे जहाज के बिना समुद्र को पार नही किया जा सकता है ठीक वैसे ही गुरु के मार्गदर्शन के बिना इस संसार सागर से पार पाना बहुत कठिन है । गुरु इस संसार के एक ऐसी महत्वपूर्ण भूमिका है जिसके बिना किसी भी कार्य का शुभारंभ नही किया जा सकता है । जैसे महल बनाने से पहले नींव की महत्ता होती उसी तरह किसी के जीवन निर्माण से पहले गुरु रूपी नींव की महत्ता सर्वाधिक होती है । *गुरु निस्पृह अकिंचन भाव से सभी को जीवन जीने की कला सिखाते* और साथ हमें ऐसी दृढ़ता प्रदान करते है जिसके बदौलत हम जीवन कही भी ठोकर नही खा सकते हैं । भारत की जितनी भी धर्म परम्परा है उन सब मे गुरु को सर्वाधिक महत्व दिया गया है । कबीर दास जी ने तो यहाँ तक कह दिया कि गुरु की प्राप्ति अगर शिरोच्छेद कर प्राप्त किया जा सकता है तो ये सौदा बहुत सस्ता है । जिस तरह हमारे पिता एक होते है उसी तरह हमारे गुरु भी एक ही होते है । आज इस संसार मे ऐसी दुविधा हो गई है कि जहां से भी थोड़ा लाभ मिला उसे हम बाप बना देते है । *जैसे प्रतिदिन कपड़े बदलते उसी तरह आज के लोग गुरु बदलने में लगे हैं ।* आज उस सन्त के पास तो कल किसी और सन्त के पास । ये कैसी विडंबना है एक और शास्त्र ग्रन्थ सब गुरु की महिमा को गा रहा है तो वही एक और चमत्कार और क्षणिक लाभ के लिए गुरु बदले जा रहें । गुरु को बदलने वाला जीवन मे कभी भी मुक्ति का मार्ग नही पा सकता है । *प्रभु महावीर के आज्ञा के विपरीत गए 7 निह्नव भव भ्रमण कर रहे है* , इसके पीछे यही बात सिद्ध होती है कि जो गुरु के प्रति अश्रद्धा करता है , गुरु वचन का पालन नही करता है , उपकारी गुरु का अपकार करता है ऐसा व्यक्ति भव भ्रमण का पाप अर्जन कर लेता है ।

जैन आगम के अनेक स्थानों पर गुरु की आज्ञा पालन का निर्देश दिया गया है । आचारांग सूत्र में कहा गया है -

आणाए अभिसमेच्चा अकुतोभयं (आचारांग सूत्र 9/3) इस का भावार्थ है जो व्यक्ति तीर्थंकर केवली एवं गुरु के बताए मार्ग पर आचरण करता है वह अकुतोभय होता है अर्थात उसे संसार के किसी भी भय (डर) का डर नही होता है । वह निश्चिंत होकर धर्म का आचरण करता है ।

आज गुरु पूर्णिमा का पावन प्रसंग है यद्यपि जैन धर्म में तो गुरु की आराधना भक्ति का उल्लेख तो तीनों समय करने की है परन्तु वर्तमान में वैदिक परंपरा में आषाढ़ पूर्णिमा के दिन गुरु की विशेष भक्ति का उल्लेख का प्रसंग प्राप्त होता है । इस अवसर से जो भक्त है उसे आरधना करने का एक प्रसंग प्राप्त हो जाता है । जैन धर्म और जैन मुनियों पर आस्था रखने वाले केवल जैन ही नही है अपितु जैनेत्तर अनेक भक्त है जिनके लिए गुरु पूर्णिमा का महत्व महत्वपूर्ण है । *मैं आप सब से आज एक विचारधारा से जुड़ने के लिए प्रेरित करना चाहूंगा ।* जो भी भक्त है वो गुरु पूर्णिमा के दिन गुरु मंत्र ग्रहण करें केवल एक बार नही प्रत्येक गुरु पूर्णिमा को जिससे हमारी श्रद्धा में प्रति वर्ष वृद्धि होगी । और जो बंधु गुरु को छोड़कर संसार की कामना के लिए किसी अन्य के पास भटक रहे हैं वे पुनः गुरु धारणा स्वीकार कर शुद्ध श्रद्धा को अंगीकार करें । मेरे आराध्य भगवान श्रमण सूर्य गुरुदेव मरूधर केसरी जी म सा ने सभी भक्तों को एक ही सीख दी है - *गुरु एक सेवा अनेक ।* अर्थात तुम्हारे पिता जिस प्रकार एक होते है ठीक उसी तरह तुम्हारे गुरु भी एक होते हैं परंतु किसी भी सन्त सती की सेवा में कमी मत रखो । एक श्रेष्ठ सन्त ही ऐसी विचारधारा दे सकता है । आप जैसै महान सन्त ने राजस्थान के मरुधरा देश को जितना उपकृत किया है उतना और कोई नही कर सकता है । *आप ने श्रावकों को एक गुलाब के फूल की तरह बनाया है । अगर कोई भी इस फूल का सुगंध ग्रहण करें तो आनंद मिलेगा और कोई उसके पंखुड़ियों को तोड़ने का प्रयास करेगा तो ध्यान रखना इसमें कांटे भी होते हैं ।*

गुरु पूर्णिमा के पावन प्रसंग पर मेरे आराध्य भगवान श्रमण सूर्य मरूधर केसरी जी म सा को शत शत नमन एवं श्रद्धेय गुरुदेव श्री रूप सुकन को शत शत नमन एवं पावन भूमि जैतारण के धाम पर उपकारी गुरुदेव ने मुझे संयम मार्ग की प्रेरणा दी ऐसे तप,जप,आराधना साधना के सम्राट उपप्रवर्तक गुरुदेव श्री अमृतमुनि जी म सा के पावन श्री चरणों मे शत शत नमन वन्दन अभिनन्दन।

प्रकाश जैन,पत्रकार।

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