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लॉक डाउन ने याद दिलाया सँयुक्त परिवार का महत्व


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वर्तमान में ही नहीं प्राचीन समय से समाज में सबसे छोटी पर सबसे मजबूत इकाई रही है सँयुक्त परिवार नामक संस्था। परिवार का सबसे मजबूत आधार है सबका साथ,आपसी विश्वास, एक दूसरे से दिल से प्रेम का अहसास, सहकार की भावना, रिश्तों की मिठास और उन्हें समझ कर निभाने की समझ की सीख, एक दूसरे के के दुख-सुख में भागीदार बनना, आपस मे मिलजुल कर सामाजिक,धार्मिक एवं पर्वों को उल्लास पूर्वक मनाना और भावी पीढ़ी में परिवार की परम्पराओं का बीजारोपण करना। ये सब सामाजिक एवं पारिवारिक अवधारणाएं ही किसी भी परिवार की सुरक्षा और खुशहाली का मूलाधार बनती हैं।

सँयुक्त परिवार के इसी महत्व को प्रतिपादित करने और लगातार परिवार के प्रति जागरूक बनाये रखने के लिए प्रति वर्ष 15 मई को विश्व परिवार दिवस मनाया जाता है। विश्व में सँयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 1993 इसकी घोषणा की और पहली बार अमेरिका द्वारा 15 मई 1994 को विश्व परिवार दिवस मनाया गया। इसके माध्यम से सँयुक्त परिवार की अहमियत बताई गई। विश्व परिवार दिवस का चिन्ह एक हरे रंग के गोल घेरे में एक घर और एक दिल बना होता है। यह चिन्ह संदेश देता है कि समाज का केंद्र परिवार है और परिवार के बिना समाज नहीं चल सकता है।

भारतीय संदर्भ में परिवार को देखते हैं तो प्राचीन समय से हमारी परिवार पद्दति सँयुक्त परिवार की रही है। जैसे-जैसे समय का चक्र आगे बढ़ता गया मानवतावादी एवं उपभोग्तावादी सोच,नगरीयकरण की चकाचौंध, औद्योगिकरण, पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव, अर्थोपार्जन के लिए घर से दूर जाने की मजबूरी, बंधन से आजादी की चाह जैसी अन्य वजहों से सँयुक्त परिवार की सदियों से चली आ रही मजबूत नींव ढहने लगी और वर्तमान युग में आते-आते एकल परिवार इकाई में बदल गई। शहरों में तो सँयुक्त परिवारों की गिनती करना ही मुश्किल हैं। कुछ जड़े बची हैं तो ग्रामीण इलाकों में अवश्य दिखाई देती हैं।

सँयुक्त एवं एकल परिवार के हिमायतियों के अपने-अपने दृष्टिकोण हैं, सोच हैं, मत हैं, तर्क हैं। हम सँयुक्त परिवार को भारतीय समाज की सभ्यता और संस्कृति कह सकते हैं जबकि एकल परिवार परीस्थितिय जन्य परिवार संस्था का एक रूप कहा जा सकता है। जब हम सँयुक्त एवं एकल परिवार की अवधारणा को तुलनात्मक रूप से तराजू में तोलते हैं तो पड़ला सँयुक्त परिवार का ही भारी नज़र आता है। यहां हमें प्रत्येक सदस्य की सुरक्षा, मिल जुल कर काम करने की सहकारिता, आर्थिक, स्वास्थ्य एवं मानसिक सुरक्षा के साथ-साथ भावी पीढ़ी के संतुलित विकास एवं संस्कृति के संरक्षण की एक मजबूत सीढ़ी दिखाई देती है,जिसका एकल परिवार में स्पस्ट अभाव नज़र आता है।

आज जबकि पूरी दुनिया के साथ-साथ भारत कोरोना जैसी भयानक संक्रमित बीमारी से जूझ रहा है ऐसे में प्रायः एकल परिवारों में सँयुक्त परिवार के महत्व पर चर्चा होती नजर आती है। यह महामारी एकल परिवार की बुनियाद की चूलों को हिलती प्रतीत होती है। अल्प समय के अंतराल में ही आर्थिक, स्वास्थ्य, दैनन्दनीय गतिविधियां प्रभावित होने लगी हैं। घरों में कैद होने,बाहर आने जाने की पाबंदी होने से तनाव,अवसाद,नींद नहीं आने,भूख बंद होने ,जैसी कई मानसिक समस्यों ने जन्म लिया है। कोई बात करने वाला नहीं, दो -चार सदस्य कितनी और क्या बात करें,मनोरंजन का स्वथ्य साधन नहीं । पति कमाने नहीं जाता, बच्चे स्कूल नहीं जाते, घर में झाड़ू-पोछा लगाने,बर्तन मांझने,कपड़े धोने वाले सेवक-सेविकाओं के नहीं आने से घर के सारे काम का बोझ काम नहीं करने आदत वाली पत्नी के कंधों पर आ गई। मजबूरन पतिदेव को भी काम में हाथ बटाना पड़ रहा हैं। टीवी भी कब तक देखें, चैनल्स से सारे दिन कोरोना-कोरोना का राग अलापने से कान पक गये। जहां बच्चों की शादी होकर वे दूर रहते हैं और केवल पति-पत्नी रहते हैं उनकी स्थिति विकट हैं।इस से भी विकट है उन पति-पत्नी की स्थिति जो अलग-अलग शहरों में काम करते हैं और कोरोना के कारण फंस गये हैं। ऐसे ही कई कारण तनाव की वजह बन रहे हैं और परिवार से दूर रहने का गम सालने लगा हैं। इन परिवारों का दुख सुनने वाला भी कोई नहीं है। समझ मे आने लगा हैं संयुक्त परिवार के साथ रहने का महत्व।

रोजगार के लिए गांवों से घर छोड़ कर शहरों की ओर पलायन कर आये लोगों को कोरोना की महामारी ने रोजगार के द्वार बंद कर दिये और उन्हें वापस गांव और घर की तरफ मोड़ दिया है। हज़ारों लोग गांव अपने घर जा रहे हैं। विदेशों में गए लोग भी घर आने को मजबूर हैं। कोचिंग के स्टूडेंट भी घर जा रहे हैं। हालांकि वर्तमान में कोरोना से उत्पन्न यह परिस्थिति जन्य स्थिति है इस लिए यह सब हो रहा है, कभी-कभी ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है।

सँयुक्त परिवार टूटने का सबसे ज्यादा असर बुजुर्गों पर देखने में मिलता है। बुजुर्ग जिसका सबसे ज्यादा आदर-सम्मान था, पूज्य था, सबकी आशा होता था वह सबसे ज्यादा उपेक्षित और तिरस्कृत होकर अपमानित महसूस करता है। एकल परिवार के लिए ऐसे बुजुर्ग केवल नाम भर के लिए रह कर बोझ बन गए हैं। इनकी दीर्घायु होने की कामना कोई नहीं करता वरण राह तकते हैं कब और कैसे यह बोझ कम हो। दो या अधिक सन्तान हो तो उनको रखने की समस्या ही आपसी कड़वाहट की वजह बन जाती हैं। जिसके पास ये रहते हैं वहां आये दिन तनाव बना रहता हैं। एक हंसते -खेलते परिवार की तीन सन्तानें अपने बुजुर्ग माता-पिता से किस प्रकार उपेक्षित व्यवहार करते हैं और केवल धनदौलत के पीछे भागते हैं, फ़िल्म " बागवान " समाज की आँखें खोलने के लिए बेहतरीन उद्दाहरण है। ऐसी कई अनेक फिल्में बनी हैं जो परिवार के महत्व का सीधा सन्देश देती हैं।

सँयुक्त परिवार में सभी की कमाई का साझा हिसाब होता है। किसी भी कारण से कोई सदस्य कमाई नहीं कर पाता तो उसे आर्थिक तंगी का सामना नहीं करना पड़ता है। कोई भी अचानक आई आर्थिक परेशानी का हल सहजता से हो जाता है। किसी के बीमार होने पर हर सदस्य देखभाल के लिए मौजूद है,किसी की मदद के लिए मुह नहीं तकना पड़ता। संगठित परिवार की और देखने की भी किसी की एकाएक हिम्मत नहीं होती जब कि एकल परिवार की सुरक्षा निर्बाध नहीं है।

सँयुक्त परिवार में अधिक सदस्य होने से ग्रह कार्यो का विभाजन होने से सभी कार्य सुगमता से सम्पन्न हो जाते हैं, किसी एक पर काम का बोझ नही आता हैं। सब लोग खुशी-खुशी एक दूसरे का सहयोग करते हैं आपस में हंसी मजाक का माहौल, विविध प्रकार मनोरंजन,मनोविनोद,एक साथ पर्व,सामाजिक एवं धार्मिक कार्यकर्मो के आयोजनों से मानसिक स्वास्थ्य अच्छा रहता है और किसी प्रकार का तनाव व अवसाद की स्थिति नहीं बनती है।

भावी पीढ़ी के समुचित ,सर्वांगीण एवं चारित्रिक विकास की दृष्टि से भी बेहतर अवसर उपलब्ध रहते हैं। माता-पिता के साथ दादा-दादी,ताऊ-ताई, चाचा-चाची, बुआ आदि सभी का प्यार-दुलार मिलता है, इन रिश्तों की अहमियत और निभाने की कला सीखने को मिलती है, परिवार की परम्पराओं का ज्ञान होता है, कहानियां व धर्म-ज्ञान की बाते मनोरंजन करती हैं,दिमाग की खिड़कियों को खोलती हैं। सामाजिकता का पाठ सीखने को मिलता हैं। जब कि एकल परिवार में बच्चा भौतिक जगत से तो सम्पर्क में आता है पर सँयुक्त परिवार से मिलने वाले सर्वांगीण विकास से महरूम रह जाता है।

यह कहने में कोई संकोच नहीँ की वर्तमान में सँयुक्त परिवार की और लौटने के लिए बने एक अच्छे माहौल का लाभ लेने के लिये एकल परिवार आगे आएं और सनातन काल की परिवार परंपरा को फिर से जीवित करें। सामान्य रूप से भी देखा जाये तो सँयुक्त परिवार ही एक सुदृढ़ परिवार इकाई है।



डॉ. प्रभात कुमार सिंघल, कोटा

लेखक एवं पत्रकार

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