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नेपाली चाशनी में चीनी मिठास कबतक?


ऋतुपर्ण दवे

चीन आखिर अपनी चाल में कामयाब हो गया और उसकी शह पर नेपाल ने वह नक्शा जारी कर दिया जो नए विवाद की वजह बना। सुगौली संधि और भारत के साथ सीमा गतिरोध के बीच इस नक्शे में लिपुलेख, कालापानी और लिम्पियाधुरा को नेपाल ने अपने क्षेत्र में दिखाया है जो हमेशा से भारत के अधीन था तथा जिसकी रक्षा में चौबीसों घण्टे इण्डो-तिब्बत बॉर्डर फोर्स तैनात रहती है। जहाँ पूरी दुनिया को कोरोना की चपेट में लाकर तबाह करने में चीन ने कोई कसर नहीं छोड़ी, वहीं पड़ोसी को पड़ोसी को अलग कर विपदा काल में भी अपनी हरकतों से बाज नहीं आया। हालांकि दुनिया में कई उदाहरण हैं जहाँ पड़ोसी ही करीबी दुश्मन बनता है। नेपाल ने भी चीन के उकसाने पर जो कुछ किया वह नया तो नहीं था परन्तु आपसी रिश्तों के लिहाज से बेहद आहत करने वाला जरूर था, है और रहेगा। हमारा नेपाल से कोई दो देशों के बीच का रिश्ता नहीं है बल्कि दो संबंधियों के बीच रोटी-बेटी का है। इतना बड़ा, सम्मानजनक, पवित्र और बरसों पुराना रिश्ता जो कलंकित हुआ है उससे भारतीय बेहद आहत हैं। सीमाओं या जमीन का विवाद तो बहुत आम होते हैं जिसकी किसी को परवाह नहीं लेकिन भावनाओं को आहत करने वाली जो बात हुई उसमें चीनी साजिश का शिकार हुए नेपाल की बौनी समझ बड़ा मुद्दा है।हालांकि दुनिया की तरक्की के साथ पड़ोसियों में सीमाओं के विवाद को लेकर तनाव नया हो ऐसा नहीं है। यह अक्सर जहाँ-तहाँ सुनाई और दिखाई देता है। विवाद कभी गहराता तो कभी शांत-सा दिखता है लेकिन विवाद के हिलोरे कभी थमते नहीं है। दुनिया भर में इस वक्त डेढ़ सौ भी ज्यादा स्थानों पर या तो जमीन के मालिकाना हक या सीमाओं को लेकर ऐसे विवाद चल रहे हैं। सबसे बड़ा उदाहरण उसी चीन का है जिसकी बदनीयती के चलते चीन, वियतनाम, सिंगापुर, ताईवान और फिलीपींस के बीच करीब 35 लाख वर्ग किलोमीटर का सीमांत सागर बेड़ा विवाद भी चर्चाओं में रहा लेकिन 2016 में संयुक्त राष्ट्र की अंतर्राष्ट्रीय अदालत ने फिलीपींस की याचिका पर सुनवाई की और पंचाट ने चीन को जबरदस्त झटका देकर अधिकार के दावे को खारिज किया। लेकिन अब चीन ने अदालत के फैसले पर नाफरमानी दिखाई और हमेशा अपना बताता रहा। इसी तरह इस्राइस-फिलिस्तीन सीमा विवाद कब से खूनखराबे का कारण बना हुआ है जबकि 1948 में इस्राइल को अलग देश का दर्जा मिलते ही अरब देशों के एक समूह ने खफा होकर उस पर हमला कर दिया। तब इस्राइली सेना ने मिस्र, जोर्डन, सीरिया, लेबनान और इराक के इस संयुक्त हमले को नाकाम कर अपना वर्चस्व जरूर कायम कर लिया। वहाँ खूनखराबा आजतक जारी है। भारत के साथ सीमाओं या जमीन का विवाद केवल नेपाल भर में हो ऐसा नहीं है, पाकिस्तान का झगड़ा दुनिया भर के विद्यार्थियों के पाठ्यक्रमों में तक शामिल हो गया है जिसमें जम्मू-कश्मीर विवाद में जम्मू, कश्मीर घाटी, भारत के कब्जे के लद्दाख तो गिलगित-बाल्टिस्तान, मीरपुर, मुजफ्फराबाद जैसे हिस्सों पर पाकिस्तान के कब्जे के चलते तनाव सर्वविदित है। इसे लेकर तीन बार दोनों देशों में युध्द हो चुका है। इसी तरह भारत और चीन के बीच मैकमोहन रेखा के जरिये सीमा का निर्धारण कहने को तो 1914 में हो गया था, लेकिन है तो वही ड्रैगन, भला सीमा रेखा को क्यों मानेगा? 1962 के युध्द और अब युध्द की आहट के बीच अरुणाचल प्रदेश पर दावा कर उल्टा विवाद गहराता रहता है। चीनी सेना की गतिविधियों की जब-तब सक्रियता तनाव ही बढ़ाती है।नेपाल-भारत सीमा पर उपजे विवाद के पहले सुगौली संधि की चर्चा जरूरी है। दरअसल 1805 में नेपाल ने भारतीय रियासतों से कई इलाके हड़पकर अपना विस्तार किया था, जिससे उसकी पश्चिमी सीमा कांगड़ा के निकट सतलुज नदी तक पहुंच गई। सुगौली संधि से भारत को अपने यही इलाके वापस मिले। इस संधि के चलते मिथिला क्षेत्र का एक हिस्सा भारत से अलग होकर नेपाल के अधिकार में चला गया, जिसे नेपाली पूर्वी तराई या मिथिला कहते हैं। इसी संधि के तहत जो इलाके अब भारत में आए उसे नेपाल अपना बता रहा है। सुगौली संधि वास्तव में ईस्ट इंडिया कंपनी और नेपाली राजा के बीच आज से 206 साल पहले हुए थी जो 1814-16 में अंग्रेजों और नेपाल के बीच हुए युद्ध के बाद सुलह के तहत अमल में आई थी तथा 02 दिसम्बर 1815 को इसपर हस्ताक्षर हुए और 4 मार्च 1816 को इसपर मुहर भी लग गई। उस वक्त नेपाल की ओर से राजगुरु गजराज मिश्र और ईस्ट इण्डिया कंपनी की ओर से लेफ्टिनेंट कर्नल पेरिस ब्रेडशॉ ने हस्ताक्षर किए थे। संधि के अनुसार ही नेपाल के कुछ हिस्सों को गुलाम भारत में शामिल करने हेतु ब्रिटिश प्रतिनिधि की नियुक्ति और ब्रिटेन की सैन्य सेवाओं में गोरखाओं को भर्ती करने की अनुमति दी गई। संधि से स्पष्ट था कि नेपाल अब अपनी किसी भी सेवा में किसी अमेरिकी या यूरोपीय कर्मचारी को नियुक्त नहीं करेगा। उसी संधि में नेपाल ने अपने कब्जे वाले भूभाग का लगभग एक तिहाई हिस्सा गंवाया था, जिसमें सिक्किम, कुमाऊं और गढ़वाल राजशाही और तराई के बहुत से इलाके थे। हालांकि तराई के कुछ हिस्से 1816 में नेपाल को लौटाए गए। 1860 में भी तराई भूमि का एक और बड़ा हिस्सा नेपाल को 1857 के भारतीय विद्रोह को दबाने में ब्रिटेन की मदद के बदले पुरस्कार स्वरूप लौटा दिए गए। दिसम्बर 1923 में सुगौली संधि को शांति और मैत्री संधि में बदला गया और जब भारत आजाद हुआ तो 1950 में भारत और नेपालके शाही परिवार ने दोबारा नई संधि पर हस्ताक्षर किए। इसी संधि में भारत को काली और राप्ती नदियों के बीच के सम्पूर्ण तराई क्षेत्र मिले जो अब विवाद का विषय हैं।भारत की तमाम कोशिशों, समझाइश और कड़े ऐतराज के बावजूद नेपाली संसद ने नए मानचित्र को जारी कर जो शुरुआत की है वह दोनों के रिश्तों पर बहुत भारी पड़ने वाला है। हालांकि भारत ने पहले ही बार-बार साफ किया है कि लिपुलेख, कालापानी व लिम्पियाधुरा पर नेपाली दावे के कोई साक्ष्य नहीं हैं। नेपाल झूठा दावा करता है कि साठ के दशक में भारत ने इनपर कब्जा जमा लिया था वहीं भारत का कहना है कि तमाम ऐतिहासिक दस्तावेज बार-बार साबित करते हैं कि जिन हिस्सों को नेपाल अपना बता रहा है, हमेशा से भारत में ही शामिल रहे हैं। इन्हें हाल ही में पक्की सड़कों से जोड़कर पिछले महीने ही रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने धारचुला से लिपुलेख तक जाने वाली 75 किलोमीटर लंबी बारहमासी सड़क का उद्घाटन किया। तभी से नेपाल ने इस मुद्दे को हवा देना शुरू किया और आखिर नेपाली संसद ने पूरी एकजुटता से नया नक्शा पास कर स्थिति को ज्यादा पेचीदा कर दिया।नेपाल ने भारतीय भूमि को अपने सरकारी नक्शे में शामिल कर समस्या के कूटनीतिक समाधान के तमाम रास्तों पर अवरोध खड़ा कर दिया है जिसके दूरगामी परिणाम तय हैं। भारत के लिपुलेख, कालापानी व लिम्पियाधुरा को अपने नक्शे में शामिल कर नेपाली संसद की पूर्ण सहमति की मुहर, चीन की कुटिलता की कामयाबी है। भारत-नेपाल संबंधों में 5 साल में दूसरी बार बेहद तनावपूर्ण स्थिति बनी है। हालांकि भारत ने कड़ाई दिखाते हुए इसपर किसी भी बातचीत या समझौते की बात न करने का रुख दिखा दिया जिसपर नेपाल और चीन दोनों का ध्यान है। भारत क्या सारी दुनिया समझ रही है कि चीन से गलबहियां करते नेपाल ने सारे ऐतिहासिक रिश्तों को दरकिनार करते हुए वो नई इबारत लिखने की कोशिश की है जिसकी स्याही भी चीनी है। नेपाली प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली और उनकी सरकार किसकी कठपुतली है, सबको पता है क्योंकि भारत के खिलाफ ही राष्ट्रवाद का जहर उगल दो-दो बार सत्ता पर काबिज होने की सफलता से सम्मोहित वहाँ के सत्तासीनों को रिश्तों से ज्यादा व्यावसायिक कुटिलताओं की चाशनी मीठी लगी। लेकिन वह यह भूल रहा है कि जहाँ ज्यादा मिठास होती है कीड़े वहीं लगते हैं जिसके बाद चाशनी की जगह सिर्फ और सिर्फ कूड़ादान होती है।


(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)


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