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ऑनलाइन क्लासेज के पीछे छिपा हुआ अरबों का कारोबार


रमेश ऑटो चलाता है और उसकी पत्नी घरों में काम करती है। दोनों खुद भयंकर अभावों में पले-बढ़े और हाड़तोड़ मेहनत कर अपने दो बच्चों को शहर के एक मिशनरी स्कूल में पढ़ाते हैं। इस मजबूत आशा के साथ कि एकदिन उसके बच्चे भी अंग्रेजी बोलेंगे और पढ़-लिखकर सम्मान की जिंदगी के मालिक होंगे। जितना धन दोनों की पढ़ाई-लिखाई में जीवन भर नहीं लगा, उससे ज्यादा वे हर तीन महीने में मिशनरी स्कूल के चालान से बैंक में जमा कर रहे हैं। कोरोना की वैश्विक महामारी ने पहले तो उनकी रोजी-रोटी पर संकट खड़ा किया, जैसे-तैसे फिर भी दोनों खड़े हैं लेकिन बच्चों की तालीम में छिपे सपने लगता है, अब टूट रहे हैं। स्कूल ने वुहान वायरस के सुरक्षात्मक मापदंडों को अमल में लाते हुए ऑनलाइन क्लासेस की शुरुआत कर दी। यह नई तकनीकी रमेश जैसे तमाम अभिवावकों के लिए संकट सरीखा ही है क्योंकि वे मोबाइल के जरिये इस माध्यम से अपने बच्चों के होम ट्यूटर नहीं बन सकते हैं। उनके पास न तो ऐसे स्मार्ट फोन्स हैं, न उन्हें संचालित करने की निपुणता। मोबाइल, डेटा पैक का खर्च छोड़ भी दें तो यह नई शिक्षण प्रविधि उनके लिए बिल्कुल भी सहज नहीं है।असल में ऑनलाइन क्लासेस की यह अवधारणा निम्न और निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए तकनीकी और शिक्षा तन्त्र के पूंजीवादी स्वरूप का एक शोषनमूलक तरीका ही है। निजी स्कूलों ने कोविड अवधि की फीस भी ली है और कक्षाओं के नाम पर यह प्रविधि अपनाकर इस बड़े वर्ग को दुविधा और संकट में डाल दिया है। तथ्य यह है कि भारत में विदेशी विचारों को बगैर गुण-दोष और देशज परिस्थितियों के अपनाने की होड़ लग जाती है। ऑनलाइन क्लासेस का यह प्रयोग भी इसी का बदनुमा चेहरा है। सवाल यह भी है कि क्या हमारे सामाजिक-आर्थिक परिवेश में यह समीचीन हो सकती है? क्या स्कूल का विकल्प एक स्मार्टफोन बन सकता है? क्या जो तकनीकी विश्वविद्यालय के स्तर पर सफल हो, उसे आप प्राथमिक कक्षाओं के लिए भी उपयुक्त साबित कर सकते हैं।भारत में करोड़ों बच्चे निजी और सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं, इनमें से अधिकतर बीपीएल, निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों से आते हैं जिनके माता-पिता अकादमिक रूप से जीरो हैं। हमारी जड़ों से कटी शिक्षा व्यवस्था ने आज स्कूली व्यवस्था को पूरी तरह से विकलांग बना रखा है। अंग्रेजियत की चाह ने बच्चों को घरों की तालीम से विलग कर रखा है और जो कुछ शालेय पाठ्यक्रम में है उसका कोई स्वर या वास घरों में शेष नहीं रह गया है। ऐसे में ऑनलाइन शिक्षा का यह प्रयोग कैसे समावेशी निरूपित किया जा सकता है। क्या कामकाजी और दिहाड़ी पर घर चलाने वाले लोग इस सिस्टम के साथ खुद और बच्चों का तदात्म्य स्थापित कर पायेंगे? यह सवाल इस सिस्टम की वकालत करने वालों को ईमानदारी से करना चाहिये। मसलन 80 फीसदी से ज्यादा अभिवावकों को अंग्रेजी, गणित, विज्ञान की वे अवधारणाएं नहीं आती है जो स्कूल में आमने-सामने पढ़ाई जाती हैं। फिर जब बच्चा नेट क्लास या रिकॉर्डेड लेक्चर सुनेगा तब उसके प्रतिप्रश्न क्या उपस्थित होंगे? अगर होंगे भी तो क्या घर में उसका समाधान संभव है।वस्तुतः शिक्षा में व्यापार तत्व के सर्वोच्च होने के चलते ही ऐसे प्रयोग निजी एवं सरकारी तंत्र को ज्यादा भाते हैं। इस प्रयोग में लागत व्यय घट रहा है। वेतन, परिचालन जैसे खर्चे घटेंगे इसलिए समेकित रूप से इसकी वकालत की जा रही है लेकिन उस व्यवहारिक पक्ष को अनदेखा किया जा रहा है जिसके आगे गरीब और निम्न मध्यमवर्गीय वर्ग लाचार खड़ा है। वह विवश है क्योंकि उसके आगे कोई विकल्प नहीं है। वह खुद का पेट काटकर अपने बच्चों को कान्वेंट की तालीम दिलाना चाहता है। रमेश जैसे लाखों माता-पिता के अक्स को अनदेखा करती हमारी पूंजीवादी व्यवस्था अंततः नवाचार के नाम पर ऐसी नीतियों को ही प्रश्रय देती है जो अमीरी-गरीबी के अंतर को शाश्वत बनाएं रखें।ऑनलाइन पढ़ाई का यह प्रयोग भी वस्तुतः बाजार की अंतर्निहित शक्ति का विस्तार है, संयोग से कोरोना ने इस विस्तार को नए पंख लगा दिये हैं। मार्केटिंग कंसल्टेंट फर्म केपीएमजी का एक कोरोना पूर्व अध्ययन बताता है कि ऑनलाइन पढ़ाई का कारोबार 2016 के 25 करोड़ डॉलर के आंकड़े को पार कर 2021 में दो अरब डॉलर पहुँचने वाला था। ऑनलाइन पेड यूजर की संख्या भी एक करोड़ के आसपास आंकी गई थी। पेड यूजर मतलब धन देकर स्टडी मटीरियल खरीदने वाले लोग। भारत इस नजरिए से दुनिया का सबसे बड़ा बाजार है क्योंकि यहां हर साल 10 वीं और 12 वीं जैसी परीक्षा में करोड़ों बच्चे बैठते हैं। अकेले 2019 में ही सीबीएसई की इन परीक्षाओं में 31 लाख विद्यार्थियों ने भाग लिया था। देश भर के राज्य माध्यमिक शिक्षा मंडलों, आईसीएस, ओपन बोर्ड के स्कूली बच्चों को मिला लिया जाए तो यह आंकड़ा करोड़ों में है। इन सभी को अगर ऑनलाइन क्लासेस से जोड़ा जाता है तो यह कारोबार को किस हद तक नया आयाम देंगे यह समझना कठिन नहीं है।आरम्भ में इस प्रविधि की निःशुल्क उपलब्धता अंततः पेड मेटेरियल की बुनियाद खड़ी करता है। इस कारोबार की निर्मम तस्वीर शायद किसी को नजर नहीं आ रही है। इनके पास स्कूलों की फीस और ऑनलाइन मेटेरियल खरीदने की भी चुनौती अभी खड़ी होने वाली है। स्मार्टफोन और नेट कनेक्शन के लिये भी इन्हें अपने पेट काटकर प्रबंध में जुटना होगा क्योंकि गूगल की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में अभी भी 40 करोड़ नेट यूजर हैं, केवल 29 करोड़ स्मार्टफोन परिचालित हैं। 2021 इनकी संख्या 47 करोड़ के आसपास रहने का अनुमान है। यह अनुमान कोरोना संकट से पूर्व का है, लिहाजा बदली परिस्थितियों में हम इस छिपे हुए कारोबार को आसानी से समझ सकते हैं।


डॉ. अजय खेमरिया

(लेखक चाइल्ड वेलफेयर कमेटी के अध्यक्ष हैं।)


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