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क्या करे लोकतंत्र का रचियता मतदाता देख रहा तमाशा


वादों का अंबार और लोक लुभावने सब्जबाग दिखाकर राजा बनने वाले भिखारियों की भांति रोजी रोटी के लिए संघर्ष कर रहे हैं। जिस मतदाता से शक्ति प्राप्त करके सत्ता सिंहासन पर पहुंचे हैं उनके प्रति जिम्मेदारियों का एहसास नहीं रखते हैं। तू कौन और मैं कौन की पहचान कराने के घमासान में ही उलझे रहते हैं। वर्तमान राजनीति की दशा और दिशा स्वार्थ के दरिया में नहाने की शौकीन है। स्वार्थ यानी कि लोभ, जिसे धार्मिक कथाकार पाप का बाप बताते हैं। यथार्थ कुछ भी हो सबके अपने-अपने तर्क हैं। कोई ऐसे बोलते हैं जैसे कि चाबी वाला मुंह बोलता गुड्डा, कोई कर्कश ध्वनि निकालकर फुफकारता है, तो कोई मोनी बाबा बना बैठा है। विदूषक है कि फिर भी फर्जी हंसी हंसने की एक्टिंग करते रहते हैं। किसी ने तलवार खींच ली है तो किसी के हाथ में बिना धार का खांडा ही है, किंतु डर नहीं रहा। याद है ना कि नकली पिस्तौल दिखाकर भी विमान हाईजेक किए जाते रहे हैं। राजलीला ही ऐसी है कि जिन्हें दुलत्ती मार दी गई थी वह भी वफादारों की कतार में सबसे आगे खड़े हैं। मान,अपमानऔर अभिमान की मीमांसा किस आधार पर की जाए ?कोई आदमी आपकी ओर ध्यान देता है कि नहीं, आप अपने आप में ही काफी है। आप महान हैं, बलवान है, पर बैसाखियों के सहारे हैं, यह ना समझने की भूल मत करना। आप चुपचाप रहते हुए भी न जाने क्या क्या पैदा करके दिखा सकते हो? दुनिया वाले यूं ही जादूगर नहीं कहते हैं। सांप को रस्सी बनाने से नहीं बचे तो आपका मिशन चंद्रयान चंद्रमा पर पहुंच कर भी सफलता को नहीं छू पायेगा। यह जमाना निष्ठाओं से रहित है। वह सब विशेषताएं हमने खो दी जिनके आधार पर यह देवताओं का देश कहलाता था। यह विचार करना कि हम किसी व्यक्ति विशेष की संपत्ति नहीं है । जिस तरह से माली अपने बगीचे की सार संभाल करता है वह भाव तिरोहित ना होने पाए, तो ही बगीचा महकता ही रहेगा। लोकतंत्र का रचियता पूछ रहा है, कह रहा है कि बहुत बड़ा काम आपको सौंपा है और आपसे लोग बहुत उम्मीद लगाए बैठे हैं। अभिमान छोड़ो और पात्रता सिद्ध करो। नदियां प्रवाहित होती है तो उनके दो किनारे उनकी सीमा रेखा होती हैं। यदि उनको तोड़ दिया जाए तो प्रवाह ज्यादा दूर तक नहीं बह पाएगा। नदी के प्रवाह में जैसे ही कोई अवरोध आ जाते हैं उसकी निर्मल जलधारा मलीन होने लगती है। राख से ढके हुए अंगारे वायु वेग के थपेड़ों से सुलग उठते हैं। कब क्या होगा, कहते हैं ना कि घर को आग लग गई घर के चिराग से। समायोजन में ही समाधान है। दिल्ली के दिग्गज पहलवान भी आ डटे हैं। अखाड़े में पहलवान उस्ताद अपने शागिर्दों की मांसपेशियां मजबूत कर सकते हैं, उनमें मनोबल उत्पन्न नहीं कर सकते।

गयाप्रसाद बंसल

कोटा

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